उज्जैन के सारोला गांव में मनाई जाती है यह अनोखी परंपरा, लोहे के हाथी पर गणेश जी की सवारी!

उज्जैन के सारोला गांव में हर साल होली के बाद भगवान श्री गणेश की सवारी निकाली जाती है, जिसमें लोहे के हाथी पर राधा, कृष्ण और रुक्मणी विराजमान होते हैं। जानें इस परंपरा के बारे में।

उज्जैन के सारोला गांव में मनाई जाती है यह अनोखी परंपरा, लोहे के हाथी पर गणेश जी की सवारी!
लोहे के हाथी पर गणेश जी की सवारी

भारत में त्योहारों का पर्व पूरे देश में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है, लेकिन कुछ जगहों पर त्योहारों का जश्न कुछ अलग ही अंदाज में होता है। मध्य प्रदेश के उज्जैन का सारोला गांव एक ऐसी जगह है जहां परंपराओं का निर्वहन करते हुए एक अनोखी सवारी निकाली जाती है, जो न केवल स्थानीय लोगों बल्कि दूर-दूर से आए श्रद्धालुओं को आकर्षित करती है। यह सवारी भगवान श्री गणेश के रूप में लोहे के हाथी पर निकाली जाती है, जिसे देखने के लिए हर साल बड़ी संख्या में लोग जुटते हैं।

सारोला गांव की यह सवारी कैसे होती है?

चैत्र कृष्ण पक्ष की तीज के दिन, जो होली के बाद आती है, सारोला गांव में एक भव्य जुलूस निकाला जाता है। इस परंपरा के अनुसार, भगवान गणेश की पूजा के साथ-साथ उनके स्वरूप में एक लोहे का हाथी गांव की सड़कों पर धूमधाम से निकाला जाता है। इस सवारी का आयोजन राम मंदिर से शुरू होता है और यह राधा कृष्ण मंदिर तक जाती है। इस दौरान हाथी पर भगवान श्री कृष्ण, राधा और रुक्मणी के स्वरूप में छोटे बच्चे विराजमान होते हैं।

इस वर्ष यह सवारी चैत्र कृष्ण पक्ष की तृतीया, यानी सोमवार को हुई, जब पूरे गांव में यह भव्य यात्रा निकाली गई। खास बात यह है कि सवारी के दौरान ढोल, कड़ाबीन जैसी पारंपरिक ध्वनियों के साथ-साथ कुछ लोग आग से प्रदर्शन करते हुए भी दिखाई दिए, जो दर्शकों के लिए आकर्षण का केंद्र बन गए। साथ ही, सवारी के बीच-बीच में कुछ लोग भूत-प्रेत बनकर भी सवारी का हिस्सा बने, जो खासा ध्यान आकर्षित कर रहे थे।

सवारी का महत्व और श्रद्धालुओं की मान्यता

सारोला गांव के समाजसेवी संदीप दरबार बताते हैं कि इस सवारी से जुड़ी एक पुरानी मान्यता है। माना जाता है कि जब श्रद्धालु इस सवारी को देखते हैं और भगवान श्री गणेश की सवारी के रूप में निकाले गए हाथी का पूजन करते हैं, तो उनकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इसी मान्यता के चलते, न केवल सारोला गांव के लोग बल्कि आस-पास के कई अन्य गांवों के श्रद्धालु भी इस सवारी में सम्मिलित होने और दर्शन करने आते हैं।

इस परंपरा का महत्व स्थानीय लोगों के लिए अत्यधिक है, और उन्हें विश्वास है कि इस सवारी से उनकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं। हर वर्ष सवारी में भाग लेने के लिए श्रद्धालु दूर-दूर से आते हैं, जिससे यह परंपरा न केवल धार्मिक बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हो जाती है।

लोहे का हाथी: एक अनोखा बदलाव

पहले इस सवारी में लकड़ी के हाथी का प्रयोग किया जाता था, लेकिन समय के साथ इस परंपरा में बदलाव आया। अब लोहे के हाथी को सवारी में शामिल किया जाता है, जो काफी बड़ा और आकर्षक होता है। यह लोहे का हाथी स्थानीय कला का बेहतरीन उदाहरण है, और इसे सवारी के दौरान धूमधाम से गांव की सड़कों पर घुमाया जाता है।

एक दिलचस्प बात यह भी है कि कुछ साल पहले इस परंपरा को मनाने पर रोक लगा दी गई थी, लेकिन इसके बाद गांव में एक बड़ी आग लग गई, जिससे लोग यह मानने लगे कि परंपरा को न मानने के कारण यह संकट आया था। फिर गांववालों ने इस परंपरा को फिर से शुरू किया और भगवान श्री गणेश की सवारी निकाली, जिसके बाद गांव में आग के संकट से मुक्ति मिली।

सारोला की सवारी और उसकी अनूठी विशेषताएँ

सारोला गांव की सवारी बाकी सभी सवारियों से कुछ अलग होती है। इसमें जहाँ एक ओर श्रद्धालु और स्थानीय लोग ढोल की थाप पर नाचते-गाते हुए चलते हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ लोग आग के साथ प्रदर्शन करते हैं। यही नहीं, सवारी के दौरान भूत-प्रेत की तरह सजकर चलने वाले लोग भी एक दिलचस्प दृश्य प्रस्तुत करते हैं। इन सब के बीच, भगवान श्री कृष्ण, राधा और रुक्मणी के स्वरूप में विराजमान बच्चे लोगों का ध्यान आकर्षित करते हैं।

इसके अलावा, हर साल सवारी में भाग लेने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जिससे यह परंपरा और भी महत्वपूर्ण होती जा रही है। गांववाले इस परंपरा को अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान मानते हैं और इसे आगामी पीढ़ी तक पहुंचाने का काम कर रहे हैं।

निष्कर्ष: सारोला की सवारी एक अनूठी परंपरा है

उज्जैन जिले के सारोला गांव में होने वाली यह लोहे के हाथी की सवारी न केवल एक धार्मिक आयोजन है, बल्कि यह एक सामाजिक और सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा भी बन चुकी है। यहां के लोग अपने पारंपरिक रीति-रिवाजों को बड़े श्रद्धा भाव से निभाते हैं, और इस सवारी को देखने के लिए श्रद्धालु दूर-दूर से आते हैं।

यह अनोखी परंपरा गांव की सांस्कृतिक धरोहर को जीवित रखे हुए है और आने वाली पीढ़ी को भी अपनी जड़ों से जोड़े रखने में मदद करती है। लोहे के हाथी की सवारी, ढोल-नगाड़ों की ध्वनि, आग से प्रदर्शन और भूत-प्रेत के दृश्य यह सब मिलकर इस परंपरा को एक यादगार अनुभव बनाते हैं।

जैसे-जैसे समय बदल रहा है, सारोला गांव की यह परंपरा और भी समृद्ध होती जा रही है, और हर साल इसे देखने के लिए श्रद्धालु बड़ी संख्या में यहां आते हैं। यह परंपरा न केवल भगवान श्री गणेश की पूजा का एक हिस्सा है, बल्कि यह भी दिखाता है कि कैसे भारतीय संस्कृति अपनी विविधताओं के साथ जीवित रहती है और समय के साथ बदलती रहती है।